यद्
गत्वा न
निवर्तन्ते
by Dr. Sushil Fotedar
बस माँ बस
तुम्हारे
गर्भ में
अब मैं लौटना
चाहता हूँ
क्या ऐसा
नहीं हो सकता
की टुकड़े-टुकड़े
जी रहा मैं
टुकड़े-टुकड़े
होकर
सौंधी-सौंधी
तुम्हारी
मिट्टी में
घुल जाता
मन करता
है
तुम्हारी
पर्वत-श्रृंखलाओं
के
उन्नत
स्तनों को
शिशुवत छूता
हुआ
जगह-जगह
फूटकर
झरनों का
एक सिलसिला
हो जाऊं
निर्बल
प्राणों से
अपने
स्वार्थ को
कल्पों से
सींचता चला आ
रहा हूँ
चलो इस बार
कुछ ऐसा कर दो
की मंद-मंद
बहता पवन बनकर
सांय-सांय
करता
सदैव तुम्ही
को जपता रहूँ
जो दीपक मैं
तुमसे
उधार लाया था
वासनाओं के
अन्धकार में
उसका गला घुट
चुका है
पर कोई
चिंगारी तो
शेष होगी
क्यों नहीं
तुम उसे
अपने प्रकाश
में समेट लेती
बहुत हो चुका
माँ
अपने वक्ष को
चीरता हुआ
सारी सीमाएँ
लांघकर
तुम्हारे
विस्तृत आकाश
में
अब मैं
बिखरना चाहता
हूँ
बस माँ बस
तुम्हारे
गर्भ में
अब मैं लौटना
चाहता हूँ
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